इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग में संयम बरतने की जरूरत!

भारत सहित अन्य देश जहां इलेक्ट्रिक वाहनों में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का समाधान तलाश रहे हैं वहीं स्विट्जरलैंड सरकार ने हाल ही में इसे बढ़ावा देने की बजाए नियमित करने का फैसला लिया है। हाल ही में वहां की सरकार ने एक ‘ऑर्डिनेंस ऑन रिस्ट्रिक्शंस एंड प्रोहिबिशन ऑन द यूज़ ऑफ इलेक्ट्रिक एनर्जी’ इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग को नियंत्रित करने का फैसला लिया है। इस ऑर्डिनेंस में कुछ सीमित सेवाओं के लिए ही इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग की अनुमति देने की बात कही गई है। इस ऑर्डिनेंस के पीछे इलेक्ट्रिसिटी उत्पादन में फॉसिल एनर्जी (जीवाश्म उर्जा अर्थात कोयला जलाने) और इसके परिणाम स्वरूप वायु प्रदूषण में वृद्धि का हवाला दिया गया है। उधर हमारे देश में लगातार इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए तमाम कदम उठाए जा रहे हैं। जबकि भारत में बिजली के उत्पादन के लिए दुनिया में सबसे अधिक कोयला जलाया जाता है। 

वर्ष 2019 में बतौर वित्त मंत्री अपना पहला भाषण पढ़ते हुए निर्मला सीतारमण देश में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए खरीदारों को आयकर में छूट और ऐसे वाहनों पर लगने वाले जीएसटी को 12% से घटाकर 5% कर दिया था। इसके पूर्व वर्ष 2015-16 से 2018-19 के बीच हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन और उसके प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये फेम इंडिया (फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हाइब्रिड एंड इलेक्ट्रिक व्हीकल्स इन इंडिया) योजना के तहत सेक्टर को 529 करोड़ रुपये बतौर इंसेंटिव प्रदान किया जा चुका था। 

मार्च 2019 में डिपार्टमेंट ऑफ हेवी व्हीकल्स ने फेम इंडिया-II योजना शुरू की जिसके तहत 10 हजार करोड़ रुपये की प्रोत्साहन राशि का प्रावधान किया गया जिसे 3 वर्षों के दौरान खर्च किया जाना है। केंद्र सरकार की तर्ज पर राज्य सरकारों ने भी इस सेक्टर को बढ़ावा देने के लिये अपने अपने यहां अलग अलग प्रयास शुरू किए। दिल्ली सरकार ने भी राज्य में इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिये दो पहिया इलेक्ट्रिक वाहनों की खरीद पर 30 हजार रुपये व इलेक्ट्रिक कारों की खरीद पर 1.5 लाख रुपये की सब्सिडी देने का ऐलान किया। इसके साथ ही ऐसे वाहनों के रजिस्ट्रेशन फीस व रोड टैक्स को भी माफ किये जाने की घोषणा की गई है। 

पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सक्रिय व्यक्तियों व संगठनों द्वारा सरकार के इस कदम की काफी सराहना की जा रही है और इसे वायु प्रदूषण की समस्या के हल के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल, दिल्ली सहित देश के तमाम शहरों में वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। माने भी क्यों न! अमेरिका, चीन व अन्य यूरोपियन देश भी तो वायु प्रदूषण को कम करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दे रहे हैं। इतना ही नहीं भारी भरकम सब्सिडी भी दे रहे हैं। चीन में इलेक्ट्रिक वाहनों पर जहां 50 प्रतिशत तक की सब्सिडी प्रदान की जा रही है वहीं यूके में 35 प्रतिशत तक की सब्सिडी का प्रावधान किया गया है। लेकिन क्या वास्तव में इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण की समस्या का श्रेष्ठ समाधान है? विशेषकर भारतीय परिस्थितियों में? आइए जानने की कोशिश करते हैंः

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बिजली उत्पादक देश है और पिछले वर्ष (30 नवंबर 2022 तक) यहां 4,07,797 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया गया। बिजली उत्पादन के मामले में भारत से आगे सिर्फ चीन और अमेरिका ही हैं। लेकिन इस उजले और जगमग पक्ष का एक स्याह पहलू भी है। वह स्याह पहलू यह है कि देश में कुल उत्पादित होने वाली बिजली का 57.7 फीसदी हिस्सा कोयले से चलने वाले प्लांटों में तैयार होता है। इन प्लांटों से बाइ प्रोडक्ट के रूप में कार्बन डाइ ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड व नाइट्रोजन जैसी जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। आश्चर्य नहीं कि विश्व के 10 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 7 शहर भारत के हैं। 

नीति आयोग के आंकड़ों के मुताबिक देश में कोयले से बिजली उत्पादन का लक्ष्य 2014 के 159 गीगावाट की तुलना में 203 तक 450 गीगावाट करने की है। इसके लिए होने वाले कोयले की वार्षिक खपत में 660 मिलियन टन की तुलना में 1800 मिलियन टन की वृद्धि होनी है। नीति आयोग यह भी बताता है कि कोयले से बिजली बनाने में पूर्व में कार्बन डाइ ऑक्साइड के होने वाले उत्सर्जन 1,590 मिलियन टन प्रतिवर्ष की बजाए 4,320 मिलियन टन का उत्सर्जन होगा। इससे पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन आदि का उत्सर्जन भी वर्तमान की तुलना में कम से कम दो से तीन गुना होने की संभावना है। इससे वायु प्रदूषण जनित रोगों के कारण प्रतिवर्ष होने वाली मौतों के भी दोगुने से तीन गुने (186500 से बढ़कर 229500) तक होने की संभावना जताई जा रही है। अकेले सांस व आस्थमा के मरीजों की संख्या बढ़कर 42.7 मिलियन हो जाने की आशंका है।

स्पष्ट है कि बिजली की लगातार बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए वर्तमान में भारत के पास कोयला ही सबसे बड़ा और उपलब्ध विकल्प है। इलेक्ट्रिक वाहनों को चार्ज करने के लिये आवश्यक बिजली की मांग को पूरा करने के लिये भी अधिक से अधिक कोयले को जलाने की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए आंध्र प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड आदि राज्यों के प्लांटों की क्षमता में तीन गुना और कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश स्थित प्लांटों की क्षमता में दोगुने की वृद्धि करने की आवश्यकता पड़ेगी। और इससे वायु प्रदूषण में वर्तमान की तुलना में और अधिक वृद्धि देखने को मिलेगी। 

ईटीएस ज्यूरिख के शोधकर्ताओं ने दुनिया भर के 7,861 कोल पॉवर प्लांट्स के दुष्प्रभावों का अध्ययन किया और भारत के कोल प्लांट्स को दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषक तत्वों का उत्सर्जक पाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि बैटरी चालित इलेक्ट्रिक वाहन वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं है बल्कि ये समस्या को बढ़ाने वाले ही हैं। इसके अतिरिक्त इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ (ई-वेस्ट) का निस्तारण भी एक बड़ी समस्या बनकर उत्पन्न होने वाली है। ज्ञात आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में देश में कुल 759,600 इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री हुई थी और 2025 तक इसमें 10 गुना से अधिक की वृद्धि का अनुमान है। इसके साथ ही प्रयोग के बाद बेकार होने वाली बैटरियों में भी इतनी ही वृद्धि अनुमानित है। भारत में लिथियम आयन बैटरियों का इस्तेमाल अधिकतम हो रहा है जबकि देश में इसके निस्तारण की क्षमता अभी नगण्य के बराबर है। बैटरियों से भारी मात्रा में निकलने वाले लीड और खतरनाक धातुओं और रसायनों से बड़ी चुनौती पैदा होने की आशंका है। 

एक अनुमान के मुताबिक देश में गैर मान्यता प्राप्त साइट्स पर प्रतिवर्ष खराब बैटरियों के निस्तारण के दौरान लगभग 60 हजार मीट्रिक टन लीड्स का उत्सर्जन होता है। वर्ष 1996 में दिल्ली पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (डीपीसीबी) ने अकेले दिल्ली एनसीआर से ऐसे 45 अनधिकृत साइट्स को बंद कराया था। इन साइट्स से निकलने वाले लीड्स की मात्रा लगभग 8 लाख कारों के लीड्स युक्त पेट्रोल के संचालन के दौरान उत्पन्न होने वाले प्रदूषण के बराबर होते थे। और तो और लागत को कम करने के कारण लिथियम आयन बैटरी में लिथियम की जगह खतरनाक कोबाल्ट के प्रयोग किये जाने का भी प्रचलन बढ़ा है जो और अधिक घातक है।

अभी तक विकसित देशों में भी पुराने लिथियम आयन बैटरियों में से लिथियम को पूरी तरह निकालने की क्षमता विकसित नहीं हो सकी है। यूरोपीय देशों में भी अबतक खराब बैटरियों में से महज 5% लिथियम ही निकाला जा पाता है और बाकी लिथियम या तो जमीन में गाड़ दिये जाते हैं या फिर जला दिये जाते हैं। देश में अभी तक ऐसी समस्या पर मुख्यधारा में चर्चा भी नहीं शुरु हुई है। 

इस प्रकार, स्पष्ट है कि भारत में वायु प्रदूषण रोकने और स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना वर्तमान परिवेश के हिसाब से अधिक कारगर प्रतीत नहीं होता है। इसके सिर्फ प्रदूषण को दिल्ली व अन्य महानगरों से दूसरे राज्यों में स्थानांतरित करने भर की तरकीब बन कर रह जाने की ज्यादा उम्मीद है। सरकारों को कोई भी नई नीति बनाने से पूर्व उसका लागत विश्लेषण करना और आम जन के लिए उस खर्च को वहन करने की क्षमता को आधार बनाना अत्यंत आवश्यक है। आज जरूरत सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को बेहतर, पर्याप्त और सुविधाजनक बनाने की है ताकि अधिक से अधिक लोग निजी वाहनों का मोह त्याग कर सकें। कारपूल और राइड शेयर को भी लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है। अन्यथा, ऐसे राज्य जो प्रदूषण फैलाने के मामले में कम दोषी हैं अब उन्हें इसका खामियाजा भुगतने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

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