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उपभोक्ता का रक्षक कौन? - मिल्टन फ्रायडमैन

हाल के वर्षों के दौरान उपभोक्ता हित की वकालत वास्तव में तेजी से बढ़ते उद्योग जैसी रही है। इस देश में बेशक इसे राल्फ नादेर ने शुरू किया, पर इस उद्योग के विकास में उन्होंने वही भूमिका निभाई थी, जो हेनरी फोर्ड वाहन उद्योग की विकास प्रक्रिया में बहुत पहले ही निभा चुके थे- वह भी उपभोक्ता को ज्यादा लाभ पहुंचाते हुए, ऐसा मैं कह सकता हूं। पर जब से राल्फ नादेर बहुराष्ट्रीय स्वरूप का प्रतीक बन गए, उनके कई अनुकरणकर्ता और उत्तराधिकारी भी उभर आए: और संगठनों व अभिकरणों की एक पूरी जमात उठ खड़ी हुई जो कथित तौर पर उपभोक्ता का प्रतिनिधित्व कर रही थी।

आईसीसी, एफडीए, एसईसी, सीएबी, एफसीसी, एफटीसी, एफपीसी जैसे पुराने अभिकरणों में नई जमात आकर जुड़ गई: एनएचटीएसए, ओएसएचए, ओपीए, ईईओसी, सीपीएससी, सीएफटीसी, एनटीएसपी इत्यादि। गौर करने वाली बात है कि इस बेहिसाब वृद्धि का एक प्रभाव यह था कि इनके नाम तीन अक्षरों की जगह चार अक्षरों के रखे जाने लगे।

1975 में संघीय सरकार के कम-से-कम 27 नियामक अभिकरण थे। फेडरल रजिस्टर में उन्होंने नियमों या प्रस्तावित नियमों के 60,000 पन्ने प्रकाशित किए। संघीय नियामक आचारसंहिता में कम-से-कम 72,200 पन्नों में ये नियम दर्ज हैं। मैं अपनी किताबों की आलमारी के पास गया और अंदाजा लगाने की कोशिश की कि इतने पन्नों का अर्थ क्या हुआ, और मैंने पाया कि वे महान किताबों की पांच फुटी अलमारी के बराबर तो नहीं पर साधारण किताबों की ठीक चौबीस फुटी अलमारी के बराबर थी।

इन अभिकरणों द्वारा आपकी ओर से किया गया खर्च 1970 में 1.6 अरब डॉलर से 1975 में तिगुना होकर 4.7 अरब डॉलर हो गया है। अगर मैं गलत नहीं तो हमने कुछ नहीं देखा। वे सिर्फ प्रत्यक्ष व्यय हैं जो सरकार बजट के जरिये खर्च करती है। इसमें वे खर्च शामिल नहीं जो इन अभिकरणों द्वारा हम पर बाकी लोगों के लिए निर्धारित मानकों के रूप में डाला जाता है। आप सबसे साधारण उदाहरण लें जिससे हम सब सर्वाधिक परिचित हैं, तथाकथित वाहन संबंधी प्रदूषणरोधी और सुरक्षा आवश्यकताओं का खर्च किसी भी वाहन के लिए 500 से 1,000 डॉलर होगा। यदि सरकार ने भी 500 डॉलर वाले हर वाहन पर कोई कर लगाया और उससे हुई आय को उन मदों पर सीधे तौर पर खर्च किया तो वह संघीय बजट में शामिल होगा। आर्थिक तौर पर उस समय की स्थिति और वर्तमान स्थिति में कोई अंतर नहीं है-हम उनके लिए प्रत्यक्ष भुगतान करते हैं, हमें यह भुगतान करना ही है, चाहें या न चाहें। अतः संघीय बजट के आंकड़े काफी हद तक कम आंके गए हैं।

हमने इन अभिकरणों, खर्चों, नियम-कानूनों में खासा विकास किया है और हम इसे जारी रख रहे हैं। क्या इसके नतीजतन उपभोक्ता बेहतर तरीके से सुरक्षित है? क्या वह अब आराम से बैठकर यह कह सकता है, ''चलो भई, मेरा पूरा ध्यान रखा जा रहा है और मैं उसके बारे में सब कुछ भूल सकता हूं?'' मेरा शोध और जिसके लिए मैं आपको राजी करना चाहता हूं, वह यह है कि उपरोक्त प्रश्न का जवाब है एक नहीं! बल्कि सच तो यह है कि इन अभिकरणों, इन नियमों, इन अधिकारियों ने न केवल हमारी जेबें काटीं हैं बल्कि पहले की तुलना में हमें कम सुरक्षित छोड़ा है। जब बतौर उपभोक्ता हमें वास्तव में जरूत पड़ती है, तब हमारा वास्ता ऐसे कथित उपभोक्ता पैरोकारों से होता है जो मौजूद ही नहीं रहते। इनमें से कुछ लोग दावा करेंगे कि साइक्लामेट पर लगा प्रतिबंध और सैक्रीन पर प्रस्तावित प्रतिबंध उपभोक्ताओं के पक्ष में है।

उन्हें विश्वास है कि वे उपभोक्ता के पक्ष में हैं और यदि आप उतने ही संवेदनशील और कुशल हैं, जैसे कि वे, तो आप पर वही करने के लिए दबाव डाल रहे हैं जो अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार आप करना चाहते हैं।

सैक्रीन और साइक्लामेट को लेकर यह दलील रखी जाती है कि उनसे कैंसर होने का खतरा है। मुझ में उसके वैज्ञानिक साक्ष्य पर सवाल करने की क्षमता नहीं: मैं ऐसा प्रयास भी नहीं करूंगा। पर स्वतंत्रता पर आस्था रखने वाले के नजरिये से इस मसले से उचित रूप से निपटने का प्रकट तौर पर सही तरीका यह है कि लोगों को जागरूक करें और फिर उन्हें विकल्प चुनने की छूट दें। यह कहते हुए कि करोड़ों में एक या हजारों में एक या फिर जो भी बेहतर साक्ष्य है, उसके जरिये लोगों को अवगत कराएं कि उनके सामने कौन-कौन से संभावित खतरे हैं। इसके लिए प्रेस की स्वतंत्रता जरूरी है। पर फिर सवाल यह है कि क्या आपको अपने विकल्प चुनने के लिए सक्षम नहीं होना चाहिए?

मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं ऐसा नहीं मानता कि वाशिंगटन में बैठे कुछ लोगों को मेरी ओर से कोई फैसला करने में सक्षम होना चाहिए। यह तो मेरा काम है। मेरा नाता खुद से है, न कि उनसे। दांव पर मेरी जिंदगी लगी हुई है।

मैं यह ध्यान दिलाना चाहूंगा कि कैसे नितांत असंगत और परस्पर भिन्न लोग इससे जुड़े हुए हैं। इन उपभोक्ता अभिकरणों में एक भी ऐसा आदमी नहीं मिलेगा जो इस बात से इन्कार करे कि सिगरेट पीना कैंसर व अन्य बीमारियों, यहां तक कि सैक्रीन एवं साइक्लामेट के सर्वाधिक संभावित आंकड़ों की भी अपेक्षाकृत ज्यादा घातक है। यदि यह सही है, सैक्रीन या साइक्लामेट के संदर्भ में यदि उपभोक्ता का खुद उसी के खिलाफ बचाव किया जाना एक उचित सार्वजनिक नीति है, तो वही तर्क यह कहता है कि सिगरेट पीने पर प्रतिबंध लगाना भी एक उचित नीति है। मैंने तो सिगरेट का जिक्र किया है, पर आप बेशक यह सोचेंगे कि यही बात शराब के साथ भी है। पुनः इस बात के बेहिसाब उदाहरण हैं कि शराब पीने की वजह से राजमार्गों पर हुई दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, दोनों ही तौर पर मृतकों की संख्या सैक्रीन व साइक्लामेट के किसी भी संभावित प्रभाव के कारण मरने वालों से कहीं अधिक है। सच, इसमें कोई शक नहीं कि यदि आप शराब पीने पर प्रभावी तरीके से प्रतिबंध लगाएं तो राजमार्गों पर कारों में लगाए गए तथाकथित सुरक्षा उपकरणों द्वारा किए गए बचाव की तुलना में कहीं ज्यादा जीवन आप बचा सकते हैं। शराब पर पाबंदी लगाकर जितने लोगों के जीवन का बचाव होगा, उसके सामने कार की सीट बेल्ट व एयरबैग द्वारा किया गया बचाव नगण्य है।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हूं। मैं शराब पर प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हूं। मैं सिगरेट पीने पर लगाए गए प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हूं; मैं सैक्रीन व साइक्लामेट पर प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हूं वरन मैं बस इस पक्ष में हूं कि हर किसी को खतरों से अवगत कराया जाए और उन्हें इस बात की छूट मिले कि अपनी पूरी बुद्धिशीलता व अपने निर्णय के अनुसार वे वही करें जो करना चाहते हैं।

मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं संबद्ध लोगों के अभिप्रेरणों पर सवाल नहीं उठा रहा। एक पुरानी कहावत है जो आप सब जानते हैं कि 'जैसी करनी वैसी भरनी'। उद्देश्य एक चीज है; पर हमारी नजर परिणामों पर होती है। चलिए मैं आपको एक बेहतर उद्धरण देता हूं जो न्यायमूर्ति ब्रांडेज द्वारा दिए गए निर्णय से लिया गया है। इसके लिए हमें कुछ साल पीछे जाना होगा।

मुझे लगता है कि यह 1928 या 1929 का वर्ष था। उच्चतम न्यायलय के एक मामले में यह कहा गयाः ''जब सरकार के प्रयोजन हितकर हों तो हमारे अनुभव से हमें सीखना चाहिए कि अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हम सर्वाधिक सावधानी बरतें। स्वतंत्र देश में जन्मे लोग अपनी स्वतंत्रता पर किसी दुवृतिपूर्ण शासकों के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए स्वाभाविक रूप से चौकस होते हैं। स्वतंत्रता के लिए ज्यादा बड़ा खतरा अति उत्साही मनुष्यों के प्रछन्न रूप से सक्रिय अतिक्रमण में छिपा है, जिसका तात्पर्य तो स्पष्ट है पर इसमें समझदारी नहीं।''

उपभोक्ता की रक्षा कैसे की जा सकती है? वह कितना महफूज है? इसका स्पष्ट जवाब, जिसे मेरे हिसाब से नकारा नहीं जा सकता, यह है कि उपभोक्ता के लिए सबसे प्रभावी बचाव है मुक्त प्रतिस्पर्धा, घरेलू स्तर पर मुक्त प्रतिस्पर्धा और विश्व भर में मुक्त व्यापार। हर तरफ मुक्त प्रतिस्पर्धा के साथ यह मुक्त बाजार ही है- मुक्त निजी बाजार- जो उसका सबसे अच्छा रक्षक है। उपभोक्ता को सबसे बड़ा खतरा एकाधिकार से है, चाहे वह निजी हो या फिर सार्वजनिक। उपभोक्ता के लिए बड़ा बचाव हैः आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोतों की मौजूदगी। जो चीज उपभोक्ता को किसी एक व्यक्ति द्वारा शोषित किए जाने से बचाती है, वह यह है कि यदि किसी ने ज्यादा पैसे वसूलना चाहा तो वह व्यक्ति किसी दूसरे के पास जा सकता है।

लोग अक्सर मुझसे कहते हैं कि आप सरकारी प्रतिष्ठान और निजी प्रतिष्ठान में इतना बड़ा अंतर क्यों करते हैं? आपके सामने एक विशाल जनरल मोटर्स कारपोरेशन हो, विशालकाय नौकरशाही हो या फिर वाहन उत्पादन करने वाला एक बेहद बड़ा सरकारी निगम, आपको क्या फर्क पड़ता है? खैर, इससे काफी फर्क पड़ता है और फर्क यह है कि ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि जनरल मोटर्स आपके एक भी डॉलर ले सके जब तक कि आप उसे देने के लिए तैयार न हो जाएं। जनरल मोटर्स पुलिस का एक आदमी भेजकर आपकी जेब से पैसे नहीं निकलवा सकती है पर अमेरिकी सरकार ऐसा कर सकती है। अतः जनरल मोटर्स को आपके हितों की पूर्ति अनिवार्यतः ऐसे तरीके से करनी होगी जिसे अमेरिकी सरकार को समग्र रूप से या एक सरकारी अभिकरण को नहीं करना पड़ता। ऐसा प्रतिस्पर्धा की संभावना की वजह से है। ऐसा इसलिए है कि यदि जनरल मोटर्स आपके हितों की पूर्ति नहीं करती तो आप फोर्ड या क्रिस्लर; या फिर फोक्सवैगन या टोयोटा के उत्पाद खरीद सकते हैं। यही वह कारक है जो जनरल मोटर्स को आपका नाजायज फायदा उठाने से रोकता है।

मैं जरा इसे स्पष्ट करूं, प्रतिस्पर्धा उपभोक्ता का बचाव इसलिए नहीं करती कि व्यवसायी नौकरशाहों से ज्यादा कोमलहृदय हैं या इसलिए नहीं कि वे ज्यादा परोपकारवादी हैं, या फिर कि वे ज्यादा उदार हैं बल्कि सिर्फ इसलिए कि उपभोक्ता की हिफाजत करना उद्यमियों के स्व-हित में है।

इस विषय पर मैं आपके समक्ष आधुनिक अर्थशास्त्र के प्रणेता एडम स्मिथ की किताब दि वेल्थ ऑफ नेशंस जो 200 साल पहले लिखी गई थी, के कुछ अंश उद्धृत करना चाहूंगाः

''हम अपने भोजन की उमीद कसाई, पेय बनाने वाले या नानबाई की उदारता से नहीं करते बल्कि अपने स्व-हित के प्रति उनके आदर से करते हैं। हम अपने आप से उनकी मानवता के बारे में बात नहीं करते बल्कि उनके स्व-प्रेम की बात करते हैं और उनसे कभी भी अपनी आवश्यकताओं का जिक्र नहीं करते बल्कि उनके लाभ का उल्लेख करते हैं। कोई भिखारी ही अपने संगी नागरिकों की उदारता पर मुख्य रूप से आश्रित रहता है।'' अतः यह उदारता से नहीं बल्कि स्व-हित से है।

वापस एफडीए पर आते हैं, मान लें कि यह मौजूद नहीं होता। वैसी स्थिति में कारोबार को मिलावटी वस्तुओं का वितरण करने से कौन रोकता? यह एक बहुत खर्चीला काम होता। आइए न्यू जर्सी की एक फर्म की कहानी पर विचार करें, जिसे आपमें से बहुतों ने सुना होगा। यह कंपनी पिछले पचास सालों से भारी मुनाफे के साथ उच्चगुणवत्ता वाले सूप का उत्पादन व बिक्री कर रही थी। पचास सालों के प्रकटतः सुरक्षित संचालन के बाद सूप में मिलावट या प्रदूषित केंस का एक मामला सामने आया और बहुत जल्दी कंपनी दिवालिया हो गई। यह किसी भी व्यवसाय के लिए बहुत गैर जिम्मेदाराना हरकत है।

उन दावों का क्या, कि जटिल उत्पादों की गुणवत्ता को उपभोक्ता परख नहीं सकता और इसलिए उसे सरकार के सहयोग व मदद की जरूरत है? बाजार इसके लिए एक बेहतरीन जवाब पेश करता है। जब जटिल उत्पादों की बात आती है तो उपभोक्ता वास्तव में खुद अपने ही निर्णय पर भरोसा नहीं करता है; वह बिचौलिए के निर्णय पर भरोसा करता है। मैं इसे विस्तार से बताता हूं। कोई भी आम उपभोक्ता कमीजों, टाइयों, जूतों और पता नहीं कितने अन्य सामान की गुणवत्ता परखने का विशेषज्ञ होता है। अगर उसमें से एक खराब हो गया या आपको उसमें कोई दोष मिला तो क्या आप कमीज उत्पादक के पास जा पहुंचेंगे? नहीं, आप उस दुकान में जाएं जहां से आपने उसे खरीदा था। वह दुकानदार आपके लिए बिचौलिए की भूमिका निभा रहा है। सच तो यह है कि उस दुकान के बने रहने की वजह और पैसे कमा पाना सिर्फ इसलिए है कि वह उपभोक्ता को विश्वास दिला सकता है कि उसकी दुकान, ली जा रही कीमत के बदले अच्छा उत्पाद बेचेगी। इसी तरह आप एक सीयर्स रोबक या एक मोंटेगोमरी वार्ड या एक जनरल इले‌ट्रिक या एक जनरल मोटर्स पर विश्वास कर सकते हैं; इसलिए नहीं कि वे परोपकारवादी हैं बल्कि इस कारण कि अच्छी छवि और भरोसा बनाना उनके खुद के हित में है। यदि उनके उत्पाद लगातार खराब निकलते रहे तो उनकी छवि और उन पर बना भरोसा नष्ट हो जाएगा।

उन दावों का क्या, जिसके तहत झूठे विज्ञापन उपभोक्ताओं को मनमर्जी घुमाते हैं, एक ऐसा दावा है जिसे जॉन कैनेथ गैलब्रेथ जैसे लोगों ने प्रचारित करने में सर्वाधिक काम किया? सबसे सरल जवाब यह है कि उपभोक्ता को बहकाया नहीं जा सकता है। अगर आपको विश्वास नहीं तो आप श्रीमान फोर्ड से पूछें कि अत्यधिक खर्चीले विज्ञापन अभियान द्वारा प्रचारित एड्‌सेल का क्या हुआ जो अब तक का सबसे शानदार प्रतिमान था। वास्तविकता यह है कि उपभोक्ता जिस वस्तु को खरीदता है, उसकी परख अंततः वह उसकी गुणवत्ता से करता है, न कि दावों से। दावे उलटा असर करते हुए उसकी दिलचस्पी को ही खत्म कर डालते हैं।

अंत में और सबसे महत्वपूर्ण, क्या झूठे विज्ञापनों से उद्यम को फायदा पहुंचता है? यह वैसा ही सवाल है कि क्या उन्हें घटिया उत्पाद बनाने से लाभ है? निश्चित रूप से यदा-कदा कोई गैरजिम्मेदार कंपनी लोगों को बेवकूफ बनाकर पैसे कमा सकती है। कई साल पहले अब्राहम लिंकन ने बिल्कुल सही कहा था: ''आप चंद लोगों को हमेशा बेवकूफ बना सकते हैं, आप कभी-कभी सभी लोगों को बेवकूफ बना सकते हैं, लेकिन आप सभी को हमेशा बेवकूफ नहीं बना सकते।''

अधिसंख्य कंपनियों का मुनाफा ग्राहकों को बनाए रखने पर निर्भर करता हैः वे एक बार की बिक्री के भरोसे नहीं रहा करतीं। इसलिए यह कंपनी के ही दीर्घकालिक स्व-हित में है कि वे इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो जाएं कि दिए जा रहे विज्ञापन बेचे जा रहे उनके उत्पादों के अनुकूल हैं। मैं ऐसा मानता हूं कि ऐसी संभावना हमेशा बनी रहेगी कि आपका वास्ता घटिया उत्पादों, नीम-हकीमों और धोखाधड़ी करने वालों से पड़े। उनसे निजात पाने के लिए शायद हमें दूसरी दुनिया के जन्म लेने तक इंतजार करना होगा। पर हमें देखना इस वास्तविक दुनिया को ही है।

मैं सोचता हूं कि उपभोक्ता की हैसियत से हमारी स्थिति अच्छी है- बशर्ते आप हमें अकेला छोड़ दें। पर मेरा मानना है कि एक नागरिक के रूप में हमारी भूमिका काफी अफसोसजनक है। इसके पीछे काफी मजबूत वजह है। यदि आप हर रोज कोई चीज खरीदने जाते हैं तो इसका असर यह होता है कि आप यह जांच करते रहते हैं कि वह चीज अच्छी है या नहीं। यदि आपका किराने की दुकान से रोज वास्ता पड़ता है तो आप अच्छी तरह से निश्चिंत होना चाहेंगे कि दुकानदार खासा विश्वसनीय हो और वह आपको कम तौल का सामान न दे या गलत कीमत वसूल न करे।

लेकिन हो सकता है कि मतदान करने का मौका साल में एक बार मिले- और किस आधार पर? आपके सामने मामलों की लंबी फेहरिस्त पड़ी होगी, जिसका आपके मत और अंततः जो होता है, उसके साथ एक नगण्य रिश्ता रहता है। उसके बारे में खुद को अवगत करने के लिए कितना समय मिलता है आपको? यह बस समय और क्षमता की बर्बादी है; आप किसी भी चीज पर कोई प्रभाव नहीं डालने जा रहे।

जहां तक मेरा विचार है कि कोई भी व्यक्ति अपने निजी सामर्थ्य में एक काफी बेहतर उपभोक्ता तो है, पर अपने सार्वजनिक सामर्थ्य में अपेक्षाकृत एक अच्छा नागरिक नहीं। अतः इस दृष्टिकोण से हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम इस बात को सीखें और सरकार को हम जो शक्तियां देते हैं, उस पर लगाम कसे रखने की अहमियत के बारे में लोगों को अवगत कराएं।

मिल्टन फ्रायडमैन के ब्राइट प्रॉमिसेज, डिसमल परफारमेंसः ऐन इकोनोमिक प्रोटेस्ट (1978) से