आर. बी. लोटवाला
सदैव स्नेहिल और कृतज्ञ स्मृति में
-कुसुम लोटवाला
- हम ''इंडियन लिबरेटेरियन'' का यह लोटवाला शताब्दी विशेषांक इस पत्रिका के संस्थापक स्व. श्री आर.वी. लोटवाला की स्नेहिल और कृतज्ञतापूर्ण स्मृति में निकाल रहे हैं जिनका जन्म मई, 1875 में (हिंदू कैलेंडर के अनुसार वैशाख नरसिंह चतुर्दशी दिवस को) छुआ था, तथा अपने पिच्यान्वे वर्ष के घटनापूर्ण जीवन के पश्चात उन्होंने देवलाली के "राम बाग" में अपने आरामदेह एकांतवास में 12 मार्च, 1971 को अपने शरीर का त्याग कर दिया। इस मौके पर यह सभी के लिए लाभप्रद होगा यदि हम उनके जीवन और उनके कार्यों तथा साथ ही, उनके द्वारा अपने जीवन में अपनाए गए विचारों और आदर्शों का स्मरण करें।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
[जन्म मई, 1875 – निधन 12 मार्च, 1971]
आरंभिक जीवन
हालांकि उनका जन्म बम्बई की हलाई लोहाना जाति से संबंध रखने वाले रूढ़िवादी हिंदू परिवार में नल बाजार बम्बई के निकट जम्बली मोहल्ले में स्थित एक घर में हुआ था, फिर भी लोटवाला ने गोकुलदास तेजपाल हाई स्कूल और एल्फिन स्टोन हाई स्कूल में अंग्रेजी शिक्षा का लाभ लिया था जोकि उन दिनों अत्यंत दुर्लभ हुआ करती थी। आर्ट्स ग्रेजुएट के रूप में सेंट जेवियर कॉलेज में उनकी कॉलेज की प्रथम वर्ष की शिक्षा अकस्मात ही उस समय समाप्त हो गई जब उनके पिता भवनजिवराज के अचानक देहांत से उनके परिवार को गहरा धक्का पहुंचा। पिता की मृत्यु से उनके युवा कंधों पर न केवल समस्त घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ आ गया बल्कि उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली आटा-चक्की की देखभाल का काम भी संभालना जो उनकी पारिवारिक दुकान थी। अत्यंत निर्भीकता, अपने साहस भरे कदमों और उनमें कूट-कूट कर भरे अनथक कार्य करने के जज्बे से लोटवाला ने न केवल अपने कारोबार को आगे बढ़ाया बल्कि उनको उस वर्ष 1900 तक उस फ्लोर मिल के एकछत्र स्वामी के रूप में स्थापित कर दिया जिसका परिसर डंकन रोड, बम्बई में था। आने वाले दशक में उन्होंने उस साधारण-सी फ्लोर मिल को नवीनतम मशीनों से सुसज्जित आधुनिक रोलर फ्लोर मिल के रूप में भी परिवर्तित कर दिया। इस चक्की से प्राप्त होने वाली आय ने उन्हें रोजमर्रा के जीवन की वित्तीय चिंताओं से मुक्त कर दिया जिसकी वजह से उनके भविष्यगामी बौद्धिक विकास और वृद्धि की नींव मजबूत हुई और इसके साथ ही उन्हें देश के सामाजिक और राजनैतिक जीवन के निस्वार्थ कार्यकलापों में भाग लेने का अवसर भी प्राप्त हुआ और उनके घटनापूर्ण जीवन का आरंभ हुआ।
इसी वर्ष, अर्थात वर्ष 1900 में उनकी सबसे बड़ी बेटी सुश्री बचूबेन का भी जन्म हुआ जिन्होंने बाद में उनके साथ उनके सार्वजनिक और पत्रकारिता के क्षेत्र के कार्यकलापों में भाग लिया और जो आज एक विख्यात समाजसेविका हैं और लोटवाला संस्थानों में अत्यंत जिम्मेदारी के पदों को संभाल रही हैं और इसके साथ ही वे भगिनी समाज बंबई की अध्यक्ष भी हैं। उनके एकमात्र जीवित पुत्र श्री किशोर लोटवाला का जन्म वर्ष 1913 में रणछोड़दास भवन में हुआ था। वे और उनकी पत्नी मुमताज लोटवाला बंबई के खेलों के जगत तथा शहर के उच्च व्यावसायिक घरानों में अत्यंत प्रसिद्ध हस्तियां हैं। उनकी सबसे छोटी बेटी सुश्री कुसुम लोटवाला का जन्म आर्यभवन, बी.पी. रोड, बम्बई में हुआ था। वे इस पत्रिका के शुरू होने के समय से ही इसकी संपादक हैं और वे अपार ऊर्जा तथा अभेद्य निष्ठा के साथ उनकी पत्रकारिता एवं विचारधारा के कार्य को निर्बाध रूप से आगे बढ़ा रही हैं। रणछोड़दास लोटवाला की निष्ठावान पत्नी श्रीमति प्रेमकोर बाई, जिनके साथ उनका विवाह 18 वर्ष की उम्र में हुआ था और जो लोटवाला परिवार की प्रिय एवं ममतामयी मां रहीं, का निधन वर्ष 1927 में हो गई थी। आर.बी. लोटवाला द्वारा स्थापित प्रेमकोर बाई लोटवाला ट्रस्ट उन्हीं की स्मृति में शुरू किया गया है।
कट्टर और गैर-मूर्ति उपासक
जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों के बीच समेटे गए अनेक अनुभवों से आर.बी. लोटवाला की एक प्रमुख विशेषता, जो उनके व्यक्तित्व से दृष्टिगोचर होती थी, यह थी कि वे जीर्ण-शीर्ण और अत्यंत प्राचीन सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं में व्याप्त पाखंड और आडंबरों तथा हिंदू समाज की दकियानूसी प्रथाओं अथवा अत्यंत उग्र एवं अति प्रचारक राजनैतिक व सामाजिक दर्शनों तथा उस समय की प्रणालियों से जन्म से ही घृणा करते थे तथा उन्हें बेनकाब करने और उनके सामना करने के लिए उनकी क्रांतिकारी भावना और साहस सदैव तत्पर रहा भले ही इस विरोध का उनके जीवन और भाग्य पर कुछ भी असर क्यों न पड़ा हो। बम्बई में आयोजित गोंसाई हवेली के धर्मानुष्ठान स्वाभाविक रूप में लोटवाला की शालीनता की भावना के विरुद्ध था, जिसमें उनके समुदाय के लोगों ने इस अनुष्ठान का अनुयायी बनकर अपनी आत्माओं को और यहां तक कि पुरुषों एवं महिलाओं के शरीरों को भी गुरु के प्रति पूरी तरह समर्पित कर दिया था। उन सभी को लोटवाला से भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। वे धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रूढ़िवादी हिंदू समाज मूर्तिपूजा तथा जाति एवं उप-जाति प्रथा का प्रतीक बन चुका है, इसमें अंतरजातीय विवाहों और दूसरी जाति के लोगों के साथ भोजन करने को एक कलंक माना जाता है, तथा इसकी अस्पृश्यता जैसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए इसमें भारी परिवर्तन किए जाने की जरूरत है। 19वीं शताब्दी की समाप्ति पर दयानंद सरस्वती द्वारा आरंभ किया गया आर्य समाज हिंदू प्रोटेस्टेंट आंदोलन उन दिनों वेदों के ज्ञाता और ओजस्वी भाषण देने वाले विद्वान नित्यानंद स्वामी की प्रेरणादायक नेतृत्व में बम्बई में बहुत जोर-शोर में चल रहा था। लोटवाला इस आंदोलन से बहुत प्रभावित थे क्योंकि समाज के क्रियाकलापों में सुधारों की भावना निहित थी तथा वे जातिप्रथा, मूर्तिपूजा और आर्यों के वैदिक धर्म में घुस आए। अन्य अंधविश्वासों तथा मान्यताओं के खिलाफ थे, और उन्होंने इस आंदोलन में पर्याप्त रुचि दर्शाना आरंभ कर दिया। वे इतनी निष्ठा और प्रभावशाली ढंग से कूद पड़े कि वर्ष 1904 में उन्हें बम्बई में आर्य समाज के उपाध्यक्ष के पद पर निर्वाचित कर लिया। इस पद का निर्वहन उन्होंने उस समय तक, लगभग दो दशकों तक किया, जब उनके द्वारा वर्ष 1911 से लेकर 1913 के बीच इंग्लैंड की अनेक वार्षिक यात्राएं की गईं तथा वे इसी दौरान पश्चिमी सामाजिक, राजनैतिक और राष्ट्रीय विचारधारा के संपर्क में आए और उनके मन-मस्तिष्क में स्वयं ही धार्मिक विचारधारा के प्रति विलगाव हो गया। उनके द्वारा आरंभ किए गए गैर-रूढ़िवादी कार्यकलापों जैसे, अंतरजातीय भोज, जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से आयोजित किया करते थे, के विरुद्ध उनकी जाति के लोगों ने उन्हें अपनी जाति से बाहर कर देने के लिए उन्हें मिली चुनौतियों और धमकियां भी उन्हें समाज सुधार की गतिविधियां संचालित करने से नहीं रोक पाईं। हालांकि इन धमकियों ने उनके अनेक सहकार्यकर्ताओं को कुछ खामोश अवश्य कर दिया। बीसवें दशक के अंतिम वर्षों में वे पूरी तरह नास्तिक हो गए थे तथा धर्म में विश्वास न रखने वाले व्यक्ति बन गए थे, फिर भी उनके मन में आर्य समाज और उसके संस्थापक दयानंद सरस्वती तथा महान नित्यानंद स्वामी के प्रति अत्यंत सम्मान था। जिनके तहत कार्य करते हुए अपने आवास को 'आर्य भवन' तक का नाम दे दया था तथा जब उन्होंने उस भवन के पहली मंजिल पर पुस्ताकालय खोला, तो उसका नाम 'नित्यानंद पुस्तकालय' रखा था और जब कभी भी जरूरत महसूस हुई उन्होंने समाज को सहृदय वित्तीय सहायता भी प्रदान की।
एक समाजवादी और पत्रकार
जीवन के सभी क्षेत्रों में मानव कल्याण को प्रोत्साहित करने की आर.बी. लोटवाला की लगन ने उन्हें सच्चाई और जीवन के मूल्यों के अत्यंत दीर्घकालिक तलाश की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनथक कार्य किया और धन की परवाह भी नही की। आर्य समाज बम्बई के एक सक्रिय एवं महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में उन्होंने बिना किसी भय अथवाश पक्षपात के अपने जाति विरोधी तथा मूर्ति पूजा विरोधी विचारों का प्रचार-प्रसार किया। आर्य समाज के प्रवचन मंच से इस प्रकार के प्रचार से संतुष्ट न होते हुए उन्होंने पत्रकारिता का सहारा लिया और वर्ष 1904 से 1913 तक आर्य समाज की पत्रिका 'आर्य प्रकाश' का संपादन किया। वर्ष 1913 में इंग्लैंड से अपने वार्षिक दौरे से लौटने पर वे वेब्स और बर्नाड शॉ तथा अन्य ब्रितानी चिंतकों एवं विद्वानों के साथ संपर्कों और विचार-विमर्शों के परिणामस्वरूप एक राष्ट्रवादी और फेबियाई समाजवादी के रूप में उभरकर सामने आए। इसके पश्चात, फेबियाई समाजवाद के स्थान पर वर्ष 1921-29 तक उनके राजनैतिक और सामाजिक चिंतन में साम्यवादी समाजवाद हावी हो गया। इस अवधि के दौरान उन्होंने इस उत्कट आशा के साथ स्वयं को एस.ए. डांगे, नीमकर जोगलेकर, घाटे और अन्य युवा नेताओं जैसे मार्क्सवादी नेताओं के साथ सहयोजित कर लिया कि रूस का साम्यवादी शासन, जिसने लेनिन, त्रोस्की और अन्य 'लाल' नेताओं द्वारा आरंभ किए गए अत्यंत साहसिक संघर्ष के फलस्वरूप ज़ार को उखाड़ फेंका था। वास्तव में ही एक सुशासन स्थापित करेगा जो विशेष रूप से दलित शोषित और गरीब वर्गों पर अभिजात वर्ग एवं तानाशाही द्वारा लगाए गए कड़े बंधनों को तोड़ते हुए मानवीयता की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने में एक आदर्श सिद्ध होगा। उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य प्रकाशित करके तथा एस.ए डांगे द्वारा संपादित 'समाजवादी वीकली' पत्रिका के कार्य में सहायता करके भारतीय साम्यवादी आंदोलन की वित्तीय एवं कार्यात्मक रूप से सहायता की। उन्होंने एक काबिल युवा व्यक्ति सी.सी. शाह को अपना निजी सचिव नियुक्त किया और उन्हें ओपेरा हाउस और बम्बई के करीब अपने आर.एल. ट्रस्ट भवन में आवास भी उपलब्ध कराया। शाह को साम्यवादियों और लोटवाला के बीच एक संपर्क की भूमिका निभाने तथा उन्हें साम्यवादियों के नवीनतम सिद्धांतों एवं व्यवहारों से अवगत कराने का कार्य सौंपा गया था. लोटवाला ने आर्य भवन में अपने बैठक कक्ष में एक पुस्तकालय भी खोला जिसमें मुख्य रूप में वामपंथियों से संबंधित पुस्तकें ही थीं, और यह पुस्तकालय युवा छात्रों और साम्यवादियों के साथ होने वाली बैठकों के लिए एक मंदिर के समान ही था। उन्होंने वर्ष 1928 में बम्बई में हुई ऐतिहासिक कपड़ा मिल की हड़ताल में तथा साथ ही 'श्रमिकों और कृषकों की पार्टी' के गठन में सहयोग दिया। वामपंथ के उत्कर्ष में उनके द्वारा प्रदान की गई अपरिकल्पनीय सेवाओं की सराहना करते हुए एक बार श्री एस.ए. डांगे ने सच ही कहा था, "यदि श्री आर.बी. लोटवाला हमारे साथ नहीं होते तो 'उग्र सुधारवाद (रेडिकलिज़्म)' भारत में कम से कम दो दशक विलंब से उभरता।"
लोटवाला, जो अर्ध साम्यवादी बन चुके थे, देश के स्वाधीनता संग्राम में वामपंथी अभिमुखीकरण लाना चाहते थे, तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक पत्रिका की जरूरत को महसूस करत हुए वे अपने पत्र 'हिंदुस्तान' में लिखे जाने वाले कॉलम के माध्यम से समाजवादी एवं राजनैतिक दृष्टिकोणों का प्रचार-प्रसार करते रहे, जिसे 1924 में 'हिंदुस्तान प्रजा मित्र' के रूप में नया नाम दिया गया। इसमें उन्होंने साम्यवादी दृष्टिकोण से गांधीजी तथा उनके 'चरखे के दर्शन' की तीखी आलोचना की। हालांकि वे जानते थे कि ऐसा करने से उनके समाचार पत्र को भारी नुक्सान होगा तथा उनकी लोकप्रियता को भी क्षति पहुंचेगी। उन्होंने हमेशा उन्हीं नेताओं का समर्थन किया जिन्होंने गाँधीजी की नीतियों का विरोध किया था। जैसे विट्ठलभाई पटेल, नेहरू और दास। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए वर्ष 1924 में एडवोकेट ऑफ इंडिया प्रेस तथा दैनिक पत्र 'एडवोकेट ऑफ इंडिया' को खरीद लिया। आर.बी. लोटवाला की जीवनी के लेखक श्री इंदु लाल याग्निक को इन पत्रिकाओं का संपादक नियुक्त किया गया। लोटवाला के साथ श्री याग्निक के संपर्क राजनैतिक मतभेदों के कारण वर्ष 1942 के आसपास समाप्त हो गए।
विट्ठलभाई पटेल इन वर्षों के दौरान उनके घनिष्ट मित्र बन गए थे। उन्होंने आर्य भवन की दूसरी मंजिल पर पटेल के राजनैतिक कार्यालय के लिए जगह दी। उन्होंने भारत तथा इंग्लैंड में उनकी समस्त राजनैतिक गतिविधियों का वित्त पोषण किया और संयुक्त राष्ट्र में उनके दौरे के लिए भी धन दिया। पटेल के साथ लोटवाला की गहरी मित्रता वर्ष 1933 में श्री पटेल की विएना में मृत्यु होने तक प्रगाढ़ बनी रही।
स्वातंत्र्यवाद की डगर पर
साम्यवादी आंदोलन द्वारा जुटाए गए भारी जनसमर्थन तथा भारत में कपड़ा श्रमिकों के वर्गों में इसके द्वारा जमाए गए अत्यधिक प्रभाव ने ब्रितानी सरकार की नींदें उड़ा दी। सरकार ने प्रमुख साम्यवादी नेताओं, जिनमें डांगे, बर्दले, स्पार्ट, नीमकर, जोगलेकर, घाटे और अन्य शामिल थे पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली और उन्हें गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया। उनके विरुद्ध बना मेरठ षड्यंत्र कांड वर्ष 1929 से लेकर 1933 तक चला और इसके नतीजतन उनके अनेक साथियों को लंबे समय के लिए जेल हो गई। अपने साम्यवादी साथियों से लोटवाला की यह दूरी, तथा स्टालिन द्वारा समृद्ध कृषकों पर किए जा रहे अत्याचारों, स्टालिन द्वारा रूस में त्रोस्की के निष्कासन तथा मानवीय स्वतंत्रता के विस्तार के कार्य में अन्य साम्यवादियों को दिए गए मृत्युदंड की खबरों ने उन्हें अत्यधिक आहत किया।
धीरे-धीरे और दृढ़ता के साथ स्वयं को उस आकर्षण से मुक्त करना शुरू कर दिया जो उनके मन-मस्तिष्क पर रूसी साम्यवाद के अनुभव से इतने वर्षों तक छाया हुआ था। हालांकि वे वर्ष 1944 तक साम्यवादी बने रहे। इसी वर्ष उन्हें अपने ऊपर चढ़ गए लगभग तीन लाख रु. के कर्ज को चुकाने के लिए अपनी प्रेस और पत्रिकाओं को भी बेचना पड़ा अर्थात 'हिंदुस्तान प्रेस' एवं एडवोकेट ऑफ इंडिया प्रेस, गुजराती दैनिक, 'हिंदुस्तान प्रजामित्र', अंग्रेजी दैनिक (एडवोकेट ऑफ इंडिया), मराठी साप्ताहिक पत्रिका, 'चित्रा' और मराठी मासिक पत्रिका 'नवयुग' यह ऋण उन एक ओर तो 'गांधी विरोधी' प्रचार करने से अर्जित अलोकप्रियता के कारण तथा दूसरी ओर भारत तथा विदेशों में आधिकारिक साम्यवादी नीतियों की आलोचना करने के फलस्वरूप चढ़ा था। वर्ष 1933 में विट्ठलभाई पटेल की मृत्यु के पश्चात उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को समर्थन देना जारी रखा, जिन्होंने पूर्व में वियना से पटेल के साथ एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया था, जिसमें भारतीय लोगों से अपील की गई थी कि वे गांधीजी के नेतृत्व को छोड़कर उसके स्थान पर एक औचित्य सम्मत एवं व्यावहारिक सिद्धांत वाला नेतृत्व अपना लें। अनेक पत्रिकाओं में अपने कॉलम के माध्यम से उन्होंने राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में समस्त नस्लवादी रूपों की निंदा की। ब्रिटिश नियंत्रण आंदोलन को भी उनका घनिष्ठ सहाचर्य और उदारवादी समर्थन प्राप्त हुआ। वे भारत में रेशनलिस्ट मूवमेंट के अग्रूदत भी रहे तथा कुछ वर्षों तक उन्होंने 'इंडिया लिबरेटेरियन' के प्रत्येक अंक में 'रेशनलिस्ट सप्लीमेंट' भी शामिल किया।
और जब आखिरकार द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ तो उन्होंने भारत में ब्रिटिश गवर्नर के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के लिए विदेश में गठित और वहीं से संचालित किए गए सुभाषचंद्र बोस के हिंदुस्तान लिबरेशन आर्मी आंदोलन का समर्थन किया। गांधीजी द्वारा 'भारत छोड़ो आंदोलन' का समर्थन उनके ब्रिटिश विरोधी दृष्टिकोण का ही परिणाम था, हालांकि यह एकमात्र ऐसा मौका था जब उन्होंने गांधीजी को समर्थन दिया था।
उनकी पत्रिकाओं के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाली लोटवाला की यह सभी विचारधाराएं साम्यवाद की ओर से उनके पूर्ण अलगाव को दर्शाती हैं। वर्ष 1932 के आसपास सुविख्यात भारतीय अराजकतावादी श्री एम.पी.टी. आचार्य द्वारा उनके मस्तिष्क में बैकुनिन, क्रोपोत्किन और अन्य द्वारा तैयार किए गए 'सामूहिक अराजकतावाद' के बीज बो दिए गए। परंतु वर्ष 1944 में उनके पत्रकारिता से सेवानिवृत्त होने तक इन बीजों में अंकुर नहीं निकले थे। वैयक्तिक स्वतंत्रता का विस्तार करने में रूस में साम्यवादी प्रयोग की असफलता के साथ ही उन्होंने राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों के विकेंद्रीयकरण के बारे में अराजकतावादी विचारधारा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। लेकिन सहकारी राष्ट्रमंडल के विचारों और आर्थिक एवं राजनैतिक दोनों ही प्रकार की शक्तियों को समेटने वाले श्रमिकों के संगठनों से मिलकर बने अराजकतावादी संगठन एक ऐसी सामाजिक एवं राजनैतिक प्रणाली की निर्माण करने के लिए उनकी आत्मा की उत्कट चाह को संतुष्ट नहीं कर सके, जो व्यक्ति विशेष की स्वतंत्रता और स्वाधीनता के साथ अधिकार और शक्ति का सामंजस्य पूवर्क मेल कर सके। पचास के दशक के अंतिम वर्षों में वैयक्तिक अराजकतावादियों के संपर्क में आए जैसे श्री लॉरेंस लेबाडाइ, श्री बोरसोडी और श्रीमति लूमिस, जो कट्टर विकेंद्रीयकरणवादी थे, तथा इन विचारों को समर्थन करते थे कि सरकार उनकी विचारधारा को वर्तमान समाज में एक आवश्यक बुराई मानती है और सरकार को न्यूनतम को प्रशासित करना चाहिए, साथ ही एकाधिकार को बढ़ावा प्रदान करने के लिए अर्थव्यवस्था और निजी उद्यम को मुक्त कर दिया जाना चाहिए। इस प्रथा से इस प्रणाली के भीतर अभिमानवाद, सामंजस्यवाद और भू-समष्टिवाद में निहित समस्त श्रेष्ट सिद्धांतों का समावेश हो जाएगा।
लेकिन उन्होंने इस वैयक्तिक अराजकतावाद से भी नाता तोड़ लिया और एक स्वातंत्र्यवादी बन गए जो वैयक्तिक अराजकतावाद का ही एक रूपांतरित व्यवहारिक रूप है। जिसके मुख्य सिद्धांत हैं, 'सीमित सरकार', 'मुक्त अर्थव्यवस्था' और 'मुक्त एवं निजी उद्यम' इन विचारधाराओं तथा साथ-साथ हेनरी जॉर्ज द्वारा प्रतिपादित भूमि-मूल्यांकन प्रणाली और एकल भूमि कर के साथ वे 'दि इंडियन लिबरेटेरियन' के कॉलम के माध्यम से प्रचार-प्रसार करने लगे, जिसने तत्कालीन पत्रिका 'लिबरेटेरियन सोशलिस्ट' का स्थान लिया था और इस प्रकार यह संकेत मिला कि लोटवाला ने समाजवादी विचारधारा का पूर्णतः त्याग कर दिया है।
वर्ष 1954 से, जिस वर्ष उन्होंने इस पत्रिका की स्थापना की थी, जो लिबरेटेरियन पब्लिशर्स, कंपनी प्रा. लिमिटेड की ओर से प्रकाशित की जा रही है, जिसकी स्थापना भी उन्होंने अपने उल्लेखनीय परोपकारिता संस्थाओं के साथ किया था, उन्होंने इस विचारधारा का अकेले अपने ही बल पर प्रचार-प्रसार करने का कार्य आरंभ कर दिया जो उस समय नेहरू द्वारा भारत में स्थापित किए गए समाजवादी प्रतिमान के युग में अप्रासंगिक प्रतीत होती थी। ऐसी विचारधारा को उस समय आमतौर पर दक्षिणपंथी अथवा अतिक्रियावादी का नाम देकर खारिज कर दिया जाता था, क्योंकि अधिकांश राजनैतिक दलों के लिए समाजवाद आस्था का प्रतीक बनकर आया था।
परंतु प्रत्येक पाक्षिक अंक में 'इंडियन लिबरेटेरियन' के कॉलमों के माध्यम से, जिसकी प्रतियां अग्रणी राजनेताओं तथा सार्वजनिक पुस्तकालयों को निःशुल्क भेजी जती थीं, किए गए इस अनथक प्रचार-प्रसार ने उस समय परिणाम देने शुरू किए, जब 1960 के आस-पास स्वतंत्र पार्टी का गठन हुआ। सी.राजगोपालाचारी और प्रो. नंदा ने उन तथाकथित वामपंथियों द्वारा तीखी आलोचना किए जाने के बावजूद वैयक्तिक स्वतंत्रता की पताका निरंतर लहराने के लिए लोटवाला की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जिन वामपंथियों के मस्तिष्क और बौद्धिक क्षमता प्राचीन पड़ चुकी थी तथा जो मार्क्स, लेनिन और स्टालिन से परे देखने में असमर्थ थे। इस पत्रिका ने 'देशभक्त' अतिराष्ट्रीयवादियों द्वारा समर्थित हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के कार्य के प्रति भी स्वयं को समर्पित किया।
केवल रॉयिज़्म और सर्वोदयवाद ने ही चिंतन की प्रबल स्वतंत्रता की भावना दर्शाई। लोटवाला गैर-अनुसारकों के इस संगठन ने संबंधित थे जो राज्य में आर्थिक और राजनैतिक ताकत के विकेंद्रीयकरण से घृणा करते थे। लोटवाला ने बम्बई में स्वतंत्र आंदोलन की हर प्रकार से सहायता की और नेहरू की पंचवर्षीय योजना के विकास का पुरजोर विरोध किया जिसने देश को एक आर्थिक खोखलेपन के कगार पर खड़ा कर दिया था और मौलिक स्वाधीनता पर लगभग एक विराम-सा लगा दिया था।
लोटवाला की स्वातंत्र्यवादी आत्मा नस्लवादी पृष्ठभूमि वाले गांधीजी जय प्रकाश नारायण द्वारा आज के नेतृत्व वाले लोगों के आंदोलन के दृश्य को देखकर अवश्य ही प्रसन्ता होती होगी जो ऐसी भ्रष्ट और असतर्क सरकार के शिकंजे से लोगों की वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसके हाथ में राजनैतिक और आर्थिक दोनों ही शक्तियां केंद्रित हैं। यह उम्मीद का जा सकती है कि जो समाजवादी इस आंदोलन में शामिल हुए, वे धीरे-धीरे अपना दृष्टिकोण इस दिशा में परिवर्तित कर लेंगे कि स्वतंत्रता हमेशा ही समाजवाद से वृहद और अधिक प्रेरणाप्रद विचारधारा रही है, जैसाकि लोटवाला और एम.एन. रॉय ने कहा था, तथा आम आदमी की खुशहाली केवल वैयक्तिक स्वतंत्रता के दर्शन एवं व्यवहार से और 'लाइसेंस परमिट राज' से मुक्त अर्थव्यवस्था के माध्यम से ही सुनिश्चित की जा सकती है। वर्तमान कांग्रेस की अर्ध-सरकार के विरुद्ध संघर्ष केवल लोटवाला, रॉय और अन्य नस्लवादियों जैसे अंग्रेजी नेताओं द्वारा छोड़े गए स्वातंत्र्यवाद के वैकल्पिक नारे के तहत ही सफल हो सकता है, जो समस्या की जड़ तक पहुंचाता है, न कि पूंजीवाद और समाजवाद जैसी मरणासन्न विचारधाराओं के माध्यम से जो इस परमाणु युग में अपनी उपयोगिता को खो बैठी है।
मुक्त अर्थव्यवस्था के माध्यम से आम लोगों के मानवीय गौरव, वैयक्तिक स्वतंत्रता और सामान्य कल्याण की रक्षा करने के लिए एक अनवरत संघर्ष सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लोटवाला ने अपनी शाश्वत साख और कीर्ति के बल पर अनेक स्वातंत्र्यवादी संस्थाओं का गठन किया जैसे रणछोड़दास लोटवाला ट्रस्ट जिसमें ओपेरा हाउस, बम्बई के निकट ही एक पुस्तकालय तथा एक भवन भी था; दि आर.एल. फाउंडेशन, जिसमें एक सुसज्जित पुस्तकालय तथा एक निःशुल्क वाचनालय था, जो वी.पी. रोड, बम्बई में आर्य भवन के ट्रस्ट के भवन में स्थित था; दि लिबरेटेरियन पब्लिशर्स प्रा. लि. और इसकी पत्रिका 'दि लिबरेटेरियन'; दि लिबरेटेरियन कोऑपरेटिव बुक हाउस और दि इंडियन लिबरेटेरियन इंस्टीट्यूट; भवन जिवराज कं. द्वारा स्वामित्व वाली डंकन रोड फ्लोर मिल्स द्वारा धारित किए गए शेयरों के रूप में तथा नकद के रूप में की गई उनकी अनेक परोपकारिता पहले। इस संस्थानों का सृजन करने वाले ट्रस्ट के विलेखों और अन्य मूल विलेखों में स्वातंत्र्यवाद, तर्कवाद, समाज सुधारों और छात्रों एवं युवा पीढ़ी के बीच उच्चतर शिक्षा और ज्ञान के प्रोत्साहन के कार्यों को प्रवर्तित करने का विशेष रूप से उल्लेख है।
आर.बी. लोटवाला की स्मृति उस समय तक हमारे देश के पुरुषों और महिलाओं के मन-मस्तिष्क पर बनी रहेगी, जब तक कि चिंतन एवं जीवन के स्वतंत्र और औचित्यपूर्ण मार्ग के माध्यम से समृद्धि के मूल्य जीवित होना जारी रहेंगे तथा वे सतर्कतापूर्वक सुरक्षित, संरक्षित बने रहेंगे, और यदि जरूरत पड़ी तो उनके लिए संघर्ष भी किया जाएगा।