कोविड दुष्प्रभावः छात्रों के हैव्स और हैव्स नॉट वर्ग में बंटने का खतरा

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वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों में देश में तेजी से फैल रहे कोविड 19 संक्रमण की कड़ी को तोड़ने के लिए ‘टोटल लॉकडाउन’ जैसा कठिन और अभूतपूर्व फैसला लिया गया। इस दौरान सभी प्रकार के फ़ैक्टरियों, कारखानों, दुकानों, परिवहन, दफ्तर, स्कूल सहित अन्य सभी गतिविधियों को पूरी तरह बंद कर दिया गया। लगभग दो महीने तक जारी रहे टोटल लॉकडाउन को चरणबद्ध तरीके से धीरे समाप्त किया गया और देश एक बार फिर अनलॉक हो गया। हालांकि कोविड 19 संक्रमण के प्रसार के कारण लागू किये गए लॉकडाउन के दस महीने से अधिक बीतने के बाद भी शारीरिक दूरी, मास्क और सेनेटाइज़र के प्रयोग जैसी अनिवार्यता अब भी जारी है। इसके साथ जो एक बात और जारी है, वह है स्कूलों पर लॉकडाउन की सभी बंदिशों का जारी रहना। हाल ही में कुछ राज्यों द्वारा 10वीं और 12वीं की कक्षाओं को कुछ सीमाओं के साथ अनलॉक करने का फैसला लिया गया है लेकिन प्राथमिक कक्षाओं वाले स्कूलों को खोलने पर अबतक फैसला नहीं लिया जा सका है।

स्कूलों के अबतक न खुलने के कारण कई प्रकार की मुश्किलें भी उत्पन्न हुई हैंः

छात्रों का हैव्स और हैव्स नॉट वर्ग में बंटनाः पिछले कई दशकों से सरकार के द्वारा चलाए जा रहे सर्वशिक्षा अभियान, मिड डे मील जैसी योजनाओं व शिक्षा का अधिकार कानून के कारण छात्रों के स्कूलों में नामांकन की दर 95% के वैश्विक दर के पास पहुंच गया। गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध कराने जैसी बड़ी चुनौती जरूर पैदा हुईं लेकिन बजट प्राइवेट स्कूलों के उभार ने इसका बेहतर विकल्प उपलब्ध कराया। परिणामस्वरूप शिक्षा और अपने बच्चों के भविष्य के प्रति थोड़े जागरुक अभिभावक भी अपने बच्चों को निजी बजट स्कूलों में भेजना शुरु कर दिया। हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण लॉकडाउन के कारण पिछले 10 महीनों से सभी स्कूल बंद हैं। समाधान के रूप में स्कूलों (विशेषकर बड़े व एलीट निजी स्कूलों) ने ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करनी शुरु कर दी। बजट स्कूलों ने भी अपने स्तर पर ऑनलाइन शिक्षा प्रदान करना शुरु किया लेकिन लगभग सभी राज्यों के सरकारी स्कूलों में शिक्षण कार्य अबतक स्थगित है। हालांकि ऑनलाइन शिक्षा का लाभ एक चौथाई से भी कम छात्रों को हासिल हो सका।

यूनिसेफ द्वारा कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत के सिर्फ 24% घरों में ही इंटरनेट कनेक्शन की सुविधा उपलब्ध है। रिमोट लर्निंग रिचेबिलिटी नामक इस रिपोर्ट में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्लूएस) के छात्रों को लेकर काफी चिंता जताई गई है। चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राय) द्वारा दक्षिण भारत के चार प्रमुख राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगना में कराए गए अध्ययन से चौकाने वाली बात सामने आई। 11 से 18 आयु वर्ग के बच्चों पर कराए गए अध्ययन में सामने आया कि 90% छात्रों के पास अपना स्मार्ट फोन नहीं था। ऐसे ही कई अध्ययन अन्य राज्यों में भी हुए जिनके आंकड़ें उत्साहित करने वाले नहीं हैं जैसे कि वर्ष 2011 के बाद से सरकारी व बजट स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों में से भारी तादात ऐसे छात्रों की है जो अपने परिवार में स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अर्थात अधिकांश छात्रों के अभिभावक पढ़े लिखे नहीं हैं। ऐसे में बड़ी तादात में छात्रों के समक्ष ऑनलाइन शिक्षा हासिल करना और पढ़ाई में परिजनों का सहयोग प्राप्त करना बहुत बड़ी चुनौती है। समाजशास्त्रियों को अब यह चिंता सताने लगी है कि छात्र कहीं हैव्स और हैव्स नॉट वर्ग में न बंट जाएं।

बजट प्राइवेट स्कूलों में तालाबंदीः कम शुल्क में गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्रदान करने वाले बजट प्राइवेट स्कूलों के समक्ष अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया है। स्कूल बंद होने से फीस कलेक्शन बंद हो गया है। स्कूल संचालकों ने अध्यापकों और कर्मचारियों को पहले अपने पास से व बाद में सगे संबंधियों और जानने वालों से कर्ज लेकर आधा अधूरा वेतन दिया। लेकिन यह भी दीर्घकालीन उपाय साबित नहीं हुआ। बजट स्कूलों के अखिल भारतीय संघ नेशनल इंडिपेंडेट स्कूल्स अलायंस (निसा) द्वारा कराए गए एक आंतरिक सर्वे में पता चला कि देशभर के बजट स्कूलों में पढ़ने वाले सिर्फ 15-20 प्रतिशत छात्रों ने ही अबतक फीस जमा कराया है। निसा के मुताबिक 25 से 30 प्रतिशत स्कूल बंद होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। संगठन के वाइज़ प्रेसिडेंट एस मधुसूदन के मुताबिक देशभर के कई स्कूल संचालकों ने समस्या का हाल फिलहाल कोई समाधान निकलता न देख आत्महत्या कर ली है। उनकी मांग है कि सरकार कम से कम इस मुसीबत की घड़ी में ही सही बजट स्कूलों के छात्रों का खर्च उठाए। उनका कहना है कि देश में लागू शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक वैसे भी स्कूल जाने वाली उम्र के देश के सभी छात्रों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार की है।

- आज़ादी.मी

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स्वाति राव
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