वायरल मीम और बेंगलुरु का ट्रैफ़िक- क्या सड़कों के इस्तेमाल पर शुल्क लगाने का समय आ गया है?
मोहम्मद अनस खान
मशहूर उपन्यासकार जेफ़्री आर्चर जब अपनी बुक के लांच के लिए बेंगलुरु आए और शहर की बदनाम ट्रैफ़िक से उनका पाला पड़ा, तब उन्होंने मज़ाकिया अंदाज़ में कहा, “फ़ुटपाथ पर पैदल चल रही एक महिला मेरी कार से आठ बार आगे निकल गयी और मेरी कार आठ बार उससे आगे निकली। दो बार और ऐसा होता तो हमारी सगाई हो गयी होती।” इंटरनेट पर मीम की दुनिया अकसर ऐसे वाकयों की तलाश में रहती है, मीम बड़ी से बड़ी गंभीर घटनाओं को मजाकिया अंदाज़ में पेश करते हैं और इस वजह से सोशल मीडिया बेंगलुरु की ट्रैफ़िक पर बने मीम खासकर, हवाईअड्डे से बेंगलुरु शहर पहुंचने में लगने वाले समय पर बने मीम से भरा पड़ा है। बहुत सारे मीम शहर में ट्रैफ़िक जाम की समस्या एवं वायु गुणवत्ता और साथ ही बेंगुलुरु रहने के कितने लायक है, उससे जुड़ी स्थिति को दर्शाने वाली अख़बारों की सुर्खियों को पेश करते हैं। न केवल इंटरनेट पर वायरल होने वाले मीम या प्रमुख हस्तियाँ इस समस्या पर बात कर रही हैं बल्कि इसपर कई रिपोर्ट भी जारी हुए हैं। 2019 में प्रकाशित हुई टॉमटॉम (लोकेशन टेक्नोलॉजी कंपनी) की एक रिपोर्ट के अनुसार बेंगलुरु दुनिया में ट्रैफ़िक जाम के हिसाब से पहले स्थान पर आता है। यह गर्व करने वाली बात नहीं है, इसलिए खिताब को लेकर हमें हंसी नहीं आनी चाहिए।
सड़कों पर गाड़ियों की भीड़ के इंसानी जीवन पर पड़ने वाले असर से हमें साफ पता चलता है कि हम क्या चीज़ दाँव पर लगा रहे हैं और हम इस बढ़ती समस्या को कैसे देखते हैं। रिपोर्ट के अनुसार बेंगलुरु में एक यात्री सबसे व्यस्त समय में गाड़ी चलाते समय अतिरिक्त 243 घंटे बिताता है। इसे साफ शब्दों में समझाएँ तो इतने समय में एक व्यक्ति मशहूर टीवी सीरिज ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ के 215 ऐपिसोड देख सकता है। तो साफ है कि हम इसकी क्या कीमत चुका रहे हैं। लेकिन इससे केवल लोगों का कीमती समय बर्बाद नहीं हो रहा बल्कि इससे उनकी उत्पादकता और पूरे शहर के आर्थिक उत्पादन पर भी असर पड़ रहा है। एक अध्ययन के अनुसार बेंगलुरु में ट्रैफ़िक जाम की वजह से एक यात्री को सालाना 52,264 रुपए का नुकसान होता है। बेंगलुरु भारत का आईटी और प्रौद्योगिकी गढ़ है, तेजी से बढ़ता एक महानगर है लेकिन लंदन, सिंगापुर या सिलिकॉन वैली जैसे दूसरे प्रौद्योगिकी गढ़ों के उलट यहाँ का वायु गुणवत्ता सूचकांक अपेक्षाकृत खराब है। शहर में प्रमुख प्रदूषक, पार्टिकुलेट मैटर यानी पीएम10 और पीएम2.5 हैं जो ज़्यादातर परिवहन और सड़कों की धूल से आते हैं। ऐसी जानकारी है कि बेंगलुरु के प्रदूषण का 50 प्रतिशत हिस्सा वाहनों के उत्सर्जन या वाहनों की आवाजाही से पैदा होने वाली प्रक्रिया (यानी सड़कों की धूल) से आता है। जहाँ दिल्ली या मुंबई जैसे दूसरे महानगरों में वायु प्रदूषण बेंगलुरु से ज़्यादा है, वाहनों के उत्सर्जन की उन शहरों के वायु प्रदूषण में एक बेतरतीब हिस्सेदारी नहीं है। बेंगलुरु में खराब होती वायु गुणवत्ता 2019 में वायु प्रदूषण से कुल 12,000 लोगों के मारे जाने की वजह थी।
विशेषज्ञों ने बेंगलुरु में ट्रैफ़िक जाम के संकट को जन्म देने वाले कई कारकों की पहचान की है जिनमें अप्रभावशाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली, अपरिपक्व बुनियादी ढांचा योजना, आबादी की अनुपातहीन वृद्धि और सड़कों का अतिक्रमण शामिल हैं। लेकिन ट्रैफ़िक से जुड़ी इस अंतहीन समस्या की तरफ तेजी से बढ़ रहे शहर में हल पेश करना मुश्किल रहा है। अगर इस परिस्थिति में संसाधनों के इस्तेमाल की अर्थव्यवस्था लागू की जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि बेंगलुरु में सड़कें दुर्लभ संसाधन हैं और उनकी मांग आपूर्ति से कहीं ज़्यादा है। 2019 में शहर में वाहनों की संख्या 80 लाख को पार कर गयी जो उस क्षमता से पांच गुना ज्यादा है जिसे सड़क वहन कर सकते हैं। बदकिस्मती से नीति नियंताओं का ध्यान सड़कों की बजाए वाहनों पर रहा है। बार-बार ऐसे सुझाव दिए जाते रहे हैं कि वाहनों पर कर लगाया जाए और लोगों के लिए वाहनों की खरीद को मुश्किल किया जाए जिससे आखिरकार सड़क पर ट्रैफ़िक कम होगा। एक और हल जो सुझाया जाता है, वह शहर में सड़कों की लंबाई-चौड़ाई को बढ़ाना है ताकि ज़्यादा वाहनों की आसानी से आवाजाही हो सके। लेकिन यह प्रक्रिया बार-बार दोहरानी पड़ेगी। सड़कों का विस्तार करने से थोड़े समय के लिए ट्रैफ़िक की भीड़ से निपटने में मदद मिल सकती है, लेकिन लंबे समय में और भी लोग इससे वाहन खरीदने और सड़कों पर गाड़ियों की भीड़ बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित होंगे।
ट्रैफ़िक जाम पर शुल्क लगाना और प्रोत्साहन की अर्थव्यवस्था
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री विलियम विकरे ने सड़कों पर ट्रैफ़िक की भीड़, उसके असर का अध्ययन किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि असल में एक बाजार या मूल्य प्रणाली की कमी की वजह से सड़कों पर (खासकर महानगरीय इलाकों में) गाड़ियों की इतनी भीड़ होती है। उन्होंने इसे लेकर कहा, “मैं इस प्रस्ताव के साथ शुरूआत करता हूँ कि किसी भी दूसरे बड़े इलाके में मूल्य निर्धारण के तरीके इतने तर्कहीन, अप्रचलित और कचरे को बढ़ावा देने वाले नहीं हैं जितने शहरी परिवहन तंत्र में हैं। दो पहलू खासतौर पर अधूरे हैं: कम व्यस्त समय में अंतर पैदा करने वाले कारकों की कमी और दूसरों के सापेक्षिक कुछ मोड को काफी कमतर आंकना। व्यस्त समय में भार से जुड़ी समस्याओं द्वारा परिभाषित लगभग सभी संचालनों में व्यस्त और कम व्यस्त समय में सेवा को लिए दरों के बीच अंतर करने की कम से कम कुछ कोशिशें की गयी हैं।” विकरे एक साधारण सी बात की ओर इशारा कर रहे थे, मोटर चालकों के इस्तेमाल के हिसाब से खासकर उन जगहों पर सड़कों के इस्तेमाल पर शुल्क क्यों नहीं लगाए जाए, जहाँ भीषण ट्रैफ़िक जाम से परेशानी होती है?
विकरे के विश्लेषण के दशकों बाद, उनके विचार पर सिंगापुर में अमल किया गया। लेकिन सिंगापुर की बात करने से पहले ट्रैफ़िक की भीड़ में चलने वाले वाहनों पर शुल्क लगाने (कन्जेशन प्राइसिंग) से जुड़ी बुनियादी चीज़ों को समझना ज़रूरी है। कन्जेशन प्राइसिंग का विचार शुल्क तय करने की उस अवधारणा पर आधारित है कि उपयोगकर्ताओं यानी मोटर चालकों को सड़कों के इस्तेमाल के लिए पैसे देने पड़ेंगे और जब मांग ज़्यादा हो या ट्रैफ़िक का व्यस्त समय हो, सड़कों के इस्तेमाल का शुल्क इसके अनुसार बढ़ता-घटता रहेगा। इस तरह हो सकता है कि किसी खाली सड़क पर गाड़ी चलाने पर मोटर चालक को कोई पैसे न देने पड़े लेकिन उस सड़क पर जहाँ औमतौर पर वाहनों की भीड़ ज़्यादा होती है, व्यस्त समय के दौरान सड़क का इस्तेमाल करने के लिए ज़्यादा पैसे देने पड़ सकते हैं। इस तरह से सड़कों का इस्तेमाल करने पर शुल्क लगाने से दो फायदे होते हैं: पहला, यह व्यस्त समय में वाहनों का इस्तेमाल करने की कीमत को बढ़ाता है एवं दूसरा, यह आखिरकार वाहनों के इस्तेमाल को हतोत्साहित करता है और इस तरह से उपयोगकर्ता सार्वजनिक परिवहन जैसे यात्रा के दूसरे कारगर तरीकों की तलाश करने के लिए प्रेरित होते हैं। कन्जेशन प्राइसिंग के जरिए एक ऐसा हल मिलता है जिसके लिए वाहनों या सड़कों पर एकमुश्त कर लगाने जैसे कड़े कदम उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मोटरचालकों को अपनी कीमतों पर बेहतर नियंत्रण करने का मौका मिलता है और उन्हें इसी के अनुरूप व्यवहार करने का प्रोत्साहन मिलता है। नीतिगत हल हासिल करने के लिए लोगों और प्रोत्साहनों का इस्तेमाल करने की यह संरचना ‘पर्यावरणवाद के टेराकोटा विजन’ के अनुरूप है जिसमें इंसानी प्रवृत्ति में सुधार के लिए प्रोत्साहनों को नया रूप देने को कानून के बलपूर्वक इस्तेमाल पर तरजीह दी जाती है। जहाँ बल के जरिए नीति में सुधार की वकालत करने वाले लोग जुर्माने, करों को सही उपाय बताएंगे, टेराकोटा विजन प्रोत्साहन को इस तरह से नया रूप देने की वकालत करता है कि टकराव के बजाए सहयोग से सबसे अच्छा हल निकले।
सिंगापुर के अनुभव से सीखना
सिंगापुर और लंदन जैसी जगहों पर कन्जेशन प्राइसिंग की व्यवस्था लागू की गयी है। सिंगापुर में खास सड़कों के लिए लाइसेंस देने का चलन यानी वाहनों की भीड़ वाली सड़कों के लिए लाइसेंस पेपर बनाना, साल 1975 से होता रहा है। हालाँकि यह कन्जेशन प्राइसिंग के जैसा ही था, इससे सड़कों के असल इस्तेमाल के लिए और ट्रैफ़िक की भीड़ के संबंध में उपयोगकर्ताओं से पैसे लेने का मकसद पूरा नहीं हुआ। डाकघरों, किराने की दुकानों या इस तरह की दूसरी दुकानों में उपलब्ध लाइसेंस की कीमत सड़कों पर वाहनों की भीड़ के हिसाब से तय नहीं होती थी बल्कि यह व्यस्त या कम व्यस्त समय से इतर एक समान कीमत पर मिलता था।
साल 1998 में सिंगापुर ने इलेक्ट्रॉनिक मूल्य निर्धारण प्रणाली (ईपीएस) का निर्माण किया था जो उपयोगकर्ताओं के इस्तेमाल के हिसाब से और साथ ही सड़कों पर वाहनों की भीड़ के आधार पर शुल्क लगाने वाली दुनिया की पहली कन्जेशन प्राइसिंग प्रणाली थी। इसके लिए हर वाहन में एक आईयू या ईन-यूनिट लगाया गया और इसे क्रेडिट कार्ड भुगतान प्रणाली से जोड़ दिया गया। विभिन्न सड़कों पर ग्रैन्ट्री (स्टील का ढांचा) लगाए गए जिन्हें पार करने पर और उस सड़क पर प्रवेश करने पर मोटरचालकों से स्वचालित रूप से शुल्क ले लिया जाता था जहाँ कन्जेशन प्राइसिंग की व्यवस्था लागू थी। ईपीएस सिंगापुर में काफी सफल रहा लेकिन इस सफलता की वजह सिंगापुर द्वारा पूरे शहर को जोड़ने वाली विश्व स्तर की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली सुनिश्चित करने पर ध्यान देना था। इससे मोटर चालकों के लिए ज़रूरत न होने पर अपने निजी वाहनों का इस्तेमाल बंद करना आसान हुआ और इस तरह के उनके व्यवहार को प्रोत्साहन भी दिया गया।
स्टॉकहोम सहित कई और जगहों पर भी कन्जेशन प्राइसिंग लागू की गयी है। तीनों शहरों (सिंगापुर, लंदन और स्टॉकहोम) में सड़कों के इस्तेमाल के लिए शुल्क लगाने और शुल्क वसूलने के अलग-अलग तरीके हैं, हालांकि व्यापक सिद्धांत एक जैसे ही बने हुए हैं। सड़कों के इस्तेमाल के लिए शुल्क लगाने से कई फायदे मिलते हैं जिनमें से सड़कों पर ट्रैफ़िक कम करना एक है। इससे स्टॉकहोम में कारों के रोजाना इस्तेमाल में 30 प्रतिशत की कमी देखी गयी। सिंगापुर में ट्रैफ़िक की रफ्तार में 15 किलोमीटर प्रति घंटे की वृद्धि हुई। सड़कों पर कम कारों की मौजूदगी और सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल को ज़्यादा प्रोत्साहन देने से बेहतर वायु गुणवत्ता का भी निर्माण होता है। तीनों शहरों में ऊर्जा से जुड़े कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 10 से 20 प्रतिशत की कमी देखी गयी। यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि बेंगलुरु के मामले में वायु प्रदूषण का पहलू अहम है जहाँ वाहनों से होने वाले उत्सर्जन की वायु प्रदूषण में एक बड़ी हिस्सेदारी है।
क्या भारत में कन्जेशन प्राइसिंग लागू करना संभव है?
दुनिया के विकसित हिस्सों में नीतिगत समस्याओं के हल को लेकर चर्चा के लिए हमेशा उत्साह देखा जाता है। लेकिन जब भारत में इसी के बारे में विचार किया जाता है तो यह उत्साह तेजी से निराशा में बदल जाता है। प्रौद्योगिकी और बाजारों के अभूतपूर्व विकास से हमारे देश के सामने मौजूद चुनौतियों से निपटने (सर्वश्रेष्ठ संसाधनों के साथ) की हमारी क्षमता में कुछ उत्साह का प्रवाह होना चाहिए। मशहूर ब्रिटिश पत्रकार मैट रिडले के शब्दों में हमें न केवल आशावादी होना चाहिए बल्कि फ़ास्टैग के कार्यान्वयन जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल करने से जुड़े अपने अनुभव को देखते हुए हमें ‘तार्किक रूप से आशावादी’ होना चाहिए। 2016 में पेश किया गया फ़ास्टैग इंतजार करने में लगने वाले समय को कम करने, सड़कों पर ट्रैफ़िक को कम करने और राष्ट्रीय राजमार्गों पर कर संग्रह के लिए ज़रूरी लागत को कम करने के मकसद से बनाया गया इलेक्ट्रॉनिक टोल संग्रह का तरीका है। फ़ास्टैग एक उपकरण है जिसमें रेडियो फ़्रीक्वेंसी आईडेंटिफिकेशन तकनीक (आरएफआईडी) का इस्तेमाल किया जाता है और इसमें एक इलेक्ट्रॉनिक प्रोड्यूस कोड (ईपीसी) होता है जिसके जरिए हर वाहन की एक खास पहचान की जाती है। फ़ास्टैग को यूपीआई/एमेज़ॉन के ज़रिए आसानी से रीचार्ज कराया जा सकता है और इन्हें एचडीएफसी, आईसीआईसीआई आदि जैसे बैंकों से खरीदा जा सकता है।
जहाँ शुरूआत में फास्टैग को लेकर शंकाएं थीं, आज यानी करीब पांच वर्षों के भीतर यह देश भर में राष्ट्रीय राजमार्गों पर टोल संग्रह का सबसे प्रमुख तरीका बन गया है। राष्ट्रीय राजमार्गों के सभी 632 टोल फास्टैग टोल संग्रह की सुविधा से लैस है और टोल संग्रह का करीब 85 प्रतिशत हिस्सा फ़ास्टैग के ज़रिए होता है। सभी टोल के काम करना शुरू करने पर भारत एकमात्र ऐसा देश बन जाएगा जहाँ एक समान ई-टोल संग्रह की सुविधा होगी। इससे देश भर में एक नकदहीन, पारदर्शी और सुचारू प्रणाली के निर्माण का रास्ता साफ होता है। यह उन बहुत सारे उदाहरणों में से एक है जो बताता है कि सही प्रोत्साहन एवं प्रेरणा के साथ भारत असाधारण उपलब्धियां हासिल कर सकता है।
फ़ास्टैग की सफलता कन्जेशन प्राइसिंग से जुड़े प्रयोगों के लिए महत्व रखती है और इससे भारत में इस प्रणाली की सफलता को लेकर एक नयी उम्मीद जगती है। सड़कों के इस्तेमाल के लिए शुल्क के प्रबंधन और बुनियादी ढांचे के रखरखाव का काम निजी कंपनियों को दिया जा सकता है। इस तरह से मिलने वाला राजस्व वित्तपोषण में सरकार की मदद भी करेगा और साथ ही मेट्रो एवं बसों जैसी सार्वजनिक परिवहन सेवाओं के विस्तार के लिए ज़रूरी ढांचे के विकास में मदद देगा। जहाँ कन्जेशन प्राइसिंग सड़कों पर ट्रैफ़िक की समस्या से निपटने का एक शानदार तरीका है, इसे लागत प्रभावी और पर्यावरण के अनुकूल विकल्पों के विस्तार से जोड़ा जा सकता है। शायद भीड़भाड़ वाली सड़क के इस्तेमाल पर लगने वाला शुल्क भी फ़ास्टैग में इस्तेमाल की जाने वाली आरएफआईडी तकनीक में बदलाव कर वसूला जा सकता है। ऐसा करने से कार्यान्वयन पर होने वाले खर्च को कम करने में मदद मिलेगी क्योंकि सभी वाहनों के लिए अब फ़ास्टैग लगाना अनिवार्य है।
सिंगापुर में ईपीएस और साथ ही भारत में फ़ास्टैग की सफलता से एक ज़रूरी निष्कर्ष मिलता है कि लोगों को जागरुक करने की ज़रूरत है, समय देने की ज़रूरत है और इन प्रणालियों के लाभ एवं तौर-तरीके की जानकारी देने की ज़रूरत है। सिंगापुर में ईपीएस से जुड़ी पूरी प्रक्रिया को लेकर लोगों से संपर्क किया गया था। 2016 में कार्यान्वयन के समय, भारत में फ़ास्टैग के मामले में भी इसके इस्तेमाल को लेकर एक विशेष अभियान और प्रचार किया गया था। कई टोल प्लाज़ा में फ़ास्टैग उपयोगकर्ताओं के लिए खास एक या दो लेन रखे गए थे (जब यह अनिवार्य नहीं था) और इससे लंबी पंक्तियों में लगे वाहन चालकों को फ़ास्टैग के लाभों का पता चला था। फ़ास्टैग सभी प्रमुख बैंकों में और साथ ही एमेज़ॉन जैसे ऑनलाइन शॉपिंग प्लेटफ़ॉर्म पर भी उपलब्ध है। इसे यूपीआई जैसे डिजिटल तरीकों का इस्तेमाल कर आसानी से रीचार्ज किया जा सकता है। संक्षेप में कहें तो फ़ास्टैग के सफल कार्यान्वयन में सरकार की कोशिशों को बढ़ावा देने में बाजारों और निजी कंपनियों ने एक अहम भूमिका निभायी है और ऐसा ही कन्जेशन प्राइसिंग के मामले में किया जा सकता है। ज़रूरत तार्किक रूप से आशावादी बनने और सड़कों के इस्तेमाल के लिए शुल्क लगाने की है!
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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