अंबेडकर जयंतीः एक अर्थशास्त्री जो हमेशा वक्त से दो कदम आगे चला
भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। सारी दुनिया में उन्हें भारतीय संविधान निर्माता के तौर पर आदर और सम्मान प्राप्त है। कानून के प्रति उनकी गहरी समझ के कारण ही उन्हें देश का पहला कानून मंत्री बनने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इस तकनीकी ज्ञान आधारित व्यक्तित्व के पीछे एक सहृदय समाज सेवक भी हमेशा मौजूद रहा जो भेदभाव वाली जाति व्यवस्था और सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ सदैव आवाज उठाता रहा। लेकिन इन सब के अतिरिक्त डॉक्टर अंबेडकर ने एक दिग्गज अर्थशास्त्री के तौर पर भी बेहद अहम योगदान दिया, जिसकी चर्चा कम ही होती है।
जी हां, डॉ अम्बेडकर पहले भारतीय अर्थशास्त्री थे जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी। 1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में एमए करने के बाद इसी विश्वविद्यालय से 1917 में उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी भी की। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से भी अर्थशास्त्र में मास्टर और डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्रियां हासिल की। मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने “एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी” नाम से एक लघुशोध कार्य प्रस्तुत किया। इस शोधपत्र की बड़े बड़े विद्वानों ने भी भूरी भूरी तारीफ की थी। इसके अतिरिक्त अम्बेडकर ने पीएचडी के लिए जो थीसिस पेश की उस पर 1925 में एक किताब ‘प्रॉविन्शियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ का भी प्रकाशन हुआ।
दूरद्रष्टा बाबा साहब समय और समकालीन अर्थशास्त्रियों से हमेशा दो कदम आगे की सोच रखते थे। उनके द्वारा बरसों पहले पीएचडी की थीसिस के तौर पर केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों के बारे में जो तर्क और विचार पेश किए, उसे आजादी के बाद भारत में केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों का खाका तैयार करने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक माना जाता है। कई विद्वानों का तो मानना है कि भारत में वित्त आयोग के गठन का बीज डॉ अंबेडकर की इसी थीसिस में निहित है। कृषि क्षेत्र की समस्याओं के समाधान के लिए आज लगभग सभी उदारवादी अर्थशास्त्री कृषि पर से बड़ी आबादी की निर्भरता को कम करने की बात करते हैं जबकि बाबा साहब ने 1918 इंडियन इकोनॉमिक सोसायटी जर्नल में लिखे अपने लेख में भारत में कृषि भूमि के छोटे-छोटे खेतों में बंटे होने से जुड़ी समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कृषि भूमि पर आबादी की निर्भरता घटाने की राय दी थी और औद्योगीकरण को इसका उपाय बताया था। खास बात यह है कि अंबेडकर ने अपने इस लेख में छिपी हुई बेरोजगारी की समस्या को उस वक्त पहचान लिया था, जब यह अवधारणा अर्थशास्त्र की दुनिया में चर्चित भी नहीं हुई थी।
एक अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ अंबेडकर की सबसे चर्चित किताब है ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन.’ 1923 में प्रकाशित हुई। इस किताब में अंबेडकर ने अर्थशास्त्र के पुरोधा जॉन मेनार्ड कीन्स के विचारों की आलोचना की। कीन्स ने करेंसी के लिए गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड की वकालत की थी, जबकि अंबेडकर ने अपनी किताब में गोल्ड स्टैंडर्ड की जबरदस्त पैरवी करते हुए उसे कीमतों की स्थिरता और गरीबों के हित में बताया था।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
Comments