स्ट्रीट वेंडर्स की समस्याओं का समाधान कब!
किसी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, स्थानीय बाजार या सड़क किनारे खड़े होकर या फेरी लगाकर दिन-प्रतिदिन के कार्यों में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं को बेचकर आजीविका चलाने वाले पथ विक्रेताओं (स्ट्रीट वेंडर्स) से हम सभी का सामना अक्सर होता है। ये वेंडर्स स्वरोजगार के माध्यम से न केवल अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं बल्कि उपभोक्ताओं को सस्ते दर पर उनकी सहूलियत वाली जगह पर सामान उपलब्ध कराकर देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक देश में करीब 15 करोड़ लोग ऐसे हैं जो सीधे या परोक्ष रूप से स्ट्रीट वेंडिंग के कार्य से जुड़े हुए हैं। इतना होने के बावजूद भी रेहड़ी पटरी व्यवसायी और फेरीवाले समाज में हमेशा से हाशिए पर रहे हैं। आजीविका कमाने और दूसरों के लिए रोजगार पैदा करने वाले ये छोटे दुकानदार और फेरीवाले तमाम सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं जैसे सरकारी ऋण, सुरक्षा बीमा योजनाओं आदि से भी वंचित रह जाते हैं।
यही नहीं शासन और प्रशासन द्वारा भी इन्हें शहर की समस्या में इजाफा करने वाले और लॉ एंड ऑर्डर के लिए खतरे के तौर पर देखा जाता है। लॉ एंड ऑर्डर कायम रखने के नाम पर प्रशासन द्वारा अक्सर रेहड़ी पटरी वालों के व्यवसाय को उजाड़ने, सामानों की जब्ती, विक्रेताओं के साथ बदसलूकी जैसे कार्य किए जाते हैं।
दरअसल, शहरी गरीबी में एक बड़ी आबादी उन छोटे दुकानदारों और फेरीवालों की है जो तमाम सरकारी कल्याणकारी सुविधाओं से वंचित रह जाते हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में होने के कारण इनकी मांग भी प्रायः दबी रह जाती है।
गैर सरकारी संस्थानों, नागरिक संगठनों व सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा पथ विक्रेताओं के अधिकारों को लेकर लड़ी गई लंबी लड़ाई के बाद शहरी इलाकों के पथ विक्रेताओं (स्ट्रीट वेंडर्स) के हितों की रक्षा करने एवं पथ विक्रय गतिविधियों को नियमित करने के उद्देश्य से 19 फरवरी 2014 को उच्च सदन (राज्य सभा) द्वारा स्ट्रीट वेंडर्स (प्रोटेक्शन ऑफ लाइवलीहुड एंड रेग्युलेशन ऑफ स्ट्रीट वेंडिंग) विधेयक पारित किया गया।
हालांकि, इस विधेयक के आने से पहले कई विवाद भी उठे। केंद्र सरकार ने इसे राज्य सूची का विषय बताकर राज्यों के ऊपर जिम्मेदारी थोपने का प्रयास किया। केंद्र सरकार का तर्क था कि स्ट्रीट वेंडर संबंधी नीतियां शहरी नीति के अंतर्गत है जो कि राज्य सूची में आता है इसलिए केवल राज्य ही इस पर कानून बना सकते हैं। जबकि यह महज स्ट्रीट वेंडरों से संबंधित नीति ही नहीं, बल्कि शहरी गरीबों का जीवन स्तर भी इससे प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा हुआ है।
बहरहाल, स्ट्रीट वेंडर्स की वैधानिकता, सुरक्षा, जीवनस्तर में सुधार, सामाजिक एवं आर्थिक लाभ केंद्रित स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट में कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो इनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है।
इसके मुताबिक प्रत्येक शहर में एक टाउन वेंडिंग कमेटी गठित होगी जो म्युनिसिपल कमिश्नर या मुख्य कार्यपालक के अधीन होगी। यह कमेटी स्ट्रीट वेंडिंग से जुड़े सभी मुद्दों पर निर्णय लेगी। इस कमेटी में 40 प्रतिशत चुने गए सदस्य होंगे जिसमें से एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होगी। कमेटी को सभी स्ट्रीट वेंडरों के लिए पहचान पत्र जारी करना होगा।
इसके पूर्व उनकी संख्या और निर्धारित क्षेत्र या जोन सुनिश्चित करने हेतु एक सर्वे कराया जाएगा। इसमें उनके लिए भिन्न-भिन्न जोन तय करने का भी प्रावधान है। प्रत्येक जोन में उसकी आबादी के 2.5 प्रतिशत वेंडर ही होंगे। यदि उनकी संख्या इससे अधिक होती है तो उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जाएगा।
विधेयक में स्पष्ट प्रावधान है कि वेंडरों की जो भी संपत्ति होगी उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकेगा और न ही उनके किसी सामान को क्षति पहुंचाई जाएगी। यदि किसी जोन में उसकी कुल आबादी के 2.5 प्रतिशत से अधिक वेंडर होंगे तो उन वेंडरों को 30 दिन पूर्व नोटिस दी जानी जरूरी होगी, तभी उन्हें दूसरे जोन में स्थानांतरित किया जा सकेगा।
नोटिस की समयावधि के बावजूद भी यदि कोई वेंडर उस जोन को खाली नहीं करता है तब उस पर 250 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना और अंततः बलपूर्वक हटाया जा सकेगा अथवा उनके सामानों को जब्त किया जा सकेगा। इसकी एक सूची वेंडर को सौंपनी होगी तथा उचित जुर्माने के साथ उन जब्त सामानों को वापस लौटाया जा सकेगा।
विधेयक में स्ट्रीट वेंडर्स की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के अमल में आने के बाद इनकी गैरकानूनी स्थिति भी समाप्त हो गई जिसकी वजह से वे कई तरह की सरकारी लाभ और योजनाओं से वंचित रह जाते थे। इसी वजह से वे संस्थागत कर्ज सुविधा का लाभ भी नहीं ले पाते थे तथा कई तरह के सरकारी विभागों और कर्मियों को रिश्वत देना पड़ता था। गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा निजी स्तर पर कराए गए सर्वे में पाया गया था कि स्ट्रीट वेंडरों द्वारा उनके गैरकानूनी दर्जे के कारण गलत लोगों को काफी मात्रा में घूस या अवैध राशि देनी पड़ती थी। इस अध्ययन में यह अंदाजा लगाया गया कि घूस की यह रकम करीब 400 करोड़ प्रति वर्ष थी।
श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल श्रम बल का करीब 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में लगा है। इसका एक बड़ा हिस्सा स्ट्रीट वेंडरों या फेरीवालों के रूप में है। एक तरफ संगठित यानी औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का जीवनस्तर ऊंचा और आमदनी अधिक है वहीं इन श्रमिकों को दो जून की रोटी के लिए भी अपेक्षाकृत कड़ी मेहनत करनी होती है। इन श्रमिकों को वैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता जो संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को प्राप्त है।
आज असंगठित श्रमिकों का देश के जीडीपी में योगदान करीब 65 प्रतिशत है, जबकि कुल बचत में इनका योगदान मात्र 45 प्रतिशत है। स्ट्रीट वेंडर भी असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जिनका देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष योगदान है। इनके द्वारा बेचे जाने वाले अधिकांश सामान लघु, मध्यम उद्योगों में तैयार होते हैं।
उपरोक्त से यह स्पष्ट है कि स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट को यदि इसकी मूल भावना के तहत लागू करा लिया जाए तो तमाम समस्याओं का समाधान एक झटके में ही संभव है। वर्ष 2014 में पहले यह कानून पास होने और बाद में खुद कभी चाय बेचने वाले (नरेंद्र मोदी) के प्रधानमंत्री बनने के बाद रेहड़ी पटरी व्यवसायियों के मन में उम्मीद की किरण जगी। उन्हें लगा कि चाय वाले के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी समस्याओं का त्वरित निवारण होगा। लेकिन राज्य सरकारों के द्वारा इस कानून की खूब अनदेखी की गई है। स्ट्रीट वेंडर्स की शिकायतों के निष्पक्ष समाधान के लिए सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र निवारण तंत्र की स्थापना का प्रावधान है। हालांकि ऐसे प्रावधान पर अमल होना अब भी बाकी है।
डिस्क्लेमर:
ऊपर व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं और ये आवश्यक रूप से आजादी.मी के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।
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